जब बोलने को बहुत कुछ हो
पर वाक्य बीच में ही
बैचैन होने लगे,
तब भावना के सीने से
स्वतः ही कविता फूट पड़ती है |
चीख पड़ती है
विचारों के झुरमुट से
बहने लगती है,
भाषा के शिखर से |
वो दिखाना चाहती है
उन अंधेरे कोनों को,
वो बुलाना चाहती है
अजीब से लोगो को,
वो आवाज़ देना चाहती है
विद्रोह के बोलो को |
अगर कभी कविता चुप हो जाए
तो समझना
अंत नज़दीक है |
Write a comment ...