सोचना चाहता हूँ
समझना चाहता हूँ
बोलना भी चाहता हूँ |
खुरच कर वक़्त पर
लिख देना चाहता हूँ
अपनी भावनाएं, तर्क
सभी कुछ |
नयी भाषा गढ़ना चाहता हूँ
नयी कहानियाँ कहना चाहता हूँ
नए विचार पनपाना चाहता हूँ
मैं सब कुछ नया करना चाहता हूँ |
मगर वो जो पुराना है
जाता ही नहीं है |
कहीं न कहीं से
चुपके से, धोखे से
वो चला आता है,
मेरे विचारों में, कहानियों में, गीतों में |
मैं कितनी भी कोशिश करूँ,
मैं नया नहीं बन पाता |
मंटो की गन्दगी में
इस्मत के विद्रोह में
प्रेमचंद के यथार्थ में
रेणु के समाज में
अज्ञेय के जीवनी में
काफ्का के मुक़दमे में
द्योत्वेसकी के गुनाह में
मार्केज़ के कल्पना में
कहीं भी तो नहीं हूँ मैं |
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