घर का खाली कमरा,
दीवार की सीलन,
फर्श की धूल,
बूढ़े माँ बाप की प्रतीक्षा |
जड़ों से उखाड़ कर पौधें,
हम अपने बागों में लगायेंगे ,
अपनी नैतिकता और समाजबोध पर इतरायेंगे |
इस गतिशील दुनिया में,
जड़ की तरफ से कौन बोलेगा ?
जब सब पानी की तरह बह रहा है,
तब नदियाँ सूख गयी है,
सूखती धाराओं के इस दौर में,
घर के सूखे कुएँ की तरफ से कौन बोलेगा ?
अब होली में गर्मी बहुत है,
और छठ में ठंड कम,
शहरों के इस दौर में
गाँव की तरफ से कौन बोलेगा ?
आगे बढ़ने की होड़ में ,
जो पीछे छूट गए,
उन सब लोगों की तरफ से कौन बोलेगा ?
कुछ मर जाता है मेरे अंदर
जब भी मैं माँ का चेहरा देखता हूँ |
मैं पेड़, पहाड़, नदी , जंगल ,पशु , पक्षी , अगड़े, पिछड़े , आदमी , औरत
सब की तरफ से बोलूंगा,
मगर वो जो धीरे धीरे मेरे अंदर मर रहा है
उसकी तरफ से कौन बोलेगा ?
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